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9 अगस्त का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बहुत बड़ा महत्व है । इसी दिन 1942 में अंग्रेजों के विरुद्ध भारत छोड़ो नाम से अंतिम आंदोलन छेड़ा गया था । जिसे अगस्त क्रांति दिवस का नाम दिया गया । यह अगस्त क्रांति दिवस प्रत्येक भारतवासी को राष्ट्रभक्ति के जज्बे से सराबोर होने की सीख देता है । क्योंकि इस आंदोलन से ब्रितानिया हुकूमत की चूलें हिल गई थी ।
भारत को अग्रेंजो की गुलामी के गहन गहवर से मुक्त कराने के लिए जिन तमाम वीर सपूतों ने समय समय पर क्रांति का विगुल फूंका उन्हीं में एक नाम राजबली यादव का भी है । जिनकी चर्चा के बिना अगस्त क्रांति की चर्चा अधूरी रह जायेगी । वास्तव में राजबली यादव स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वाचल व अवध के योद्धाओं के महानायक थे । आजादी की लड़ाई में इस सपूत की अहम भूमिका रही । बाद में सक्रिय राजनीति में दखल दिया ।कालांतर में किसानों, मजदूरों व दलितों शोषितों के आदर्श बने । इस दौरान सामंती ताकतों की आंखो की किरकिरी बने रहे ।
राजबली यादव ने गुलामी के दौर में अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया और आजादी के बाद अवध की धरती पर देशी अन्ग्रेजो यानी सामंतो के उत्पीड़न के शिकार किसानों, मजदूरो व अन्य शोषित तबकों की आवाज जीवन पर्यत बुलंद किया । 9 अगस्त यानी अगस्त क्रांति दिवस की वर्षगाँठ पर इस महा सपूत की पुण्यतिथि है ।
भारत मां के अमर सपूतों की एक लम्बी फेहरिस्त में शामिल राजबली यादव का जन्म 7 नवम्बर 1906 को अवध की धरती अम्बेडकरनगर जनपद की जलालपुर तहसील के अरई गांव में एक साधारण किसान परिवार में हुआ था । चूंकि इनके पिता रामहर्ष यादव एक किसान थे इसलिए उनके साथ रहकर किसानों और मजदूरों की पीडा से वे बचपन में ही वाकिफ हो गये थे । राजबली यादव अभी कक्षा पांच में पढ ही रहे थे कि सन् 1919 में हुए जलियावाला बाग हत्याकाण्ड ने इनके बाल मन को उद्वेलित कर दिया । महज तेरह वर्ष की अवस्था में इनके अंतस में हुए क्रांति के बीजारोपण ने इन्हें क्रांतिकारी बना दिया । फिर किशोरो की टीम बनाकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाम के मन में क्रांति की भावना जगाते हुए सन् 1930 में महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में शामिल होकर सक्रिय क्रांतिकारी बन गये । फिर उन्होने कभी पीछे मुडकर नही देखा । अंग्रेजो के विरूद्ध तत्समय के किसी भी आन्दोलन में वे हमेशा आगे रहे। सन् 1930 में पहली बार जेल जाने के बाद जेल की दहशत भी समाप्त हो गयी।
सन् 1931 के व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन से लेकर सन् 1942 के भारत छोडो आन्दोलन तक सभी में राजबली यादव ने बढ चढकर हिस्सा लिया । इस दौरान उनकी जेल यात्राओं का क्रम थमा नहीं और प्रदेश की विभिन्न जेलों की दर्जनों बार यात्राएं की । इस दौरान ब्रितानी हुक्मरानों द्वारा दी गयी कठोर यातनाओ और ढाये गये जुल्मों सितम का डटकर मुकाबला भी किया । इस दौरान आजादी के तराने गाते हुए तिरंगे की शान बढ़ाया । जेलों मे तनहाई की सजा के दौरान फिरंगियों के कोडे से इनका बदन तमाम बार लहू लुहान हुआ मगर मन विचलित नही हुआ। साहस और आत्मबल की बदौलत फैजाबाद, हरदोई, जौनपुर, लखनऊ और उन्नाव जेलों की मजबूत दीवारें भी उन्हें ज्यादा दिनो तक कैद न रख सकी । तत्कालीन फैजाबाद जनपद के पूर्वाचल में स्थित राजेसुल्तानपुर की बाग में जनसभा के दौरान भारतीय नागरिकों पर जुल्म ढाने वाले दरोगा को मारने और गाजे बाजे के साथ उसका शव सरयू में प्रवाहित करने जैसे साहसिक कार्य में क्रांतिकारी बसुधा सिंह के साथ राजबली यादव प्रमुख रूप से शामिल रहे । राजेसुल्तानपुर थाने पर लगे यूनियन जैक को फाडने और तिरंगा फहराने के जुर्म में तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत ने श्री यादव को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने का फरमान जारी करते हुए इन पर इनाम भी घोषित किया था । मगर वे पुलिस की पकड से दूर रहे । इस दौरान उनके घर की कुर्की कर परिजनों को भी प्रताडित किया गया । एक बार लगातार कई दिनों तक होती रही बरसात में ब्रितानी पुलिस ने इनका घर घेर रखा था और इनकी बीमार मां व भतीजे को घर में घुसने नही दिया । नतीजा यह हुआ कि बाहर खडे खडे भीगते हुए ही दोनो ने दम तोड दिया ।
क्रांतिकारी पक्ष की ही तरह इनका सृजनात्मक पक्ष भी मजबूत रहा हैं । अंग्रेजी हुक्मरानों की दमनात्मक कार्रवाई, सामंतशाही के उत्पीड़नात्मक रवैये तथा भारतीय नागरिकों की लाचारी को आधार बनाकर श्री यादव ने जेल में रहते हुए गद्य व पद्य साहित्य का सृजन भी किया । जिसमें कमजोरों को ताकत देने वाले शब्दों का प्रयोग किया गया है । जेल की त्रासदी भरे जीवन काल में राजबली यादव ने अवधी व भोजपुरी मिश्रित बोली में ‘‘धरती हमारी है‘‘ नाटक लिखा जो आगे चलकर जनजागरण का हथियार बना ।
संघर्षो के इसी कड़ी में 15 अगस्त 1947 को आजादी की किरण फूटने के बाद कई वर्षो तक किसानो और मजदूरों के हक में देखा गया सपना जब साकार होता न दिखा तो राजबली यादव ने सामंतशाही के विरूद्ध दूसरा जनान्दोलन नाटक मंडली बनाकर शुरू किया । तत्समय चल रही चकबंदी प्रक्रिया में सामंतवादी शक्तियों के दबाव मे किसानो व मजदूरों की उपेक्षा के खिलाफ जनान्दोलन चलाते हुए श्री यादव ने कम्युनिष्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण किया और बिना पैसा लिए उत्तर प्रदेश के तमाम गांवो समेत देशभर में धरती हमारी हैं नाटक का मंचन कर लोगों को जगाया । उनके इस चर्चित नाटक के दौरान सामंती ताकतों ने अनेकों बार उन पर कातिलाना हमला कराकर उनका उत्पीड़न किया । अनेकों बार फर्जी मुकदमों में फसाकर सामंतवादियों ने उनकी आवाज दबाने का भरसक प्रयास किया । फिर भी इस क्रांतिबीर की क्रांति यात्रा अनवरत जारी रही ।
समय के साथ हर गरीब की आवाज बन चुके राजबली यादव सन् 1967 के आम चुनाव में तत्कालीन मया - अमसिन विधानसभा क्षेत्र से कम्युनिष्ट पार्टी के टिकट पर विधायक भी चुने गये । उनकी बढ़ती लोकप्रियता तथा संघर्ष शक्ति से जल उठी सामंती ताकतों ने साजिश के तहत एक मुकदमें में फसाकर सजा दिला दिया । परिणामतः उन्हें विधानसभा की सदस्यता से भी त्यागत्र देना पड़ा, लेकिन नाटक के जरिए उन्होंने जागरूकता अभियान जारी रखा और फिर कभी चुनाव नही लड़े । उनका अंतिम समय पैतृक गांव अरई में बीता । जहां 9 अगस्त 2000 को उन्होंने अंतिम सांस ली । एक सच्चे देश भक्त व स्वाधीनता सेनानी के रूप में स्थापित हुए राजबली यादव के बताए रास्ते पर चलने वाले उनके अनुयायी उन्हें शारीरिक रूप में बिदा करने के बाद भी यश काया में उन्हें जिंदा मान रहे है । वास्तव में राजबली यादव के दिल में मातृभूमि व राष्ट्र के प्रति प्रेम व समर्पण का ऐसा जज्बा था जिसने उन्हें सुख की नींद नहीं सोने दिया । जब सारा देश सोता था तब वे अपनी मण्डली के साथ अंग्रेजों के विरूद्ध योजनाएं बनाते थे और फिर सबके साथ जागते हुए उसे मूर्तरूप देते थे । जब आजादी मिली तब उन्होंने यही जज्बा देश के गरीबों मजदूरों और किसानों के प्रति दिखाया ।
इस रणबांकुरे से जुडा सर्वाधिक दुखद पहलू यह है कि जीते जी अंग्रेजो और सामन्ती ताकतों से सदा जूझते रहे राजबली यादव ने जब आंखे मूंदी तो उनके पैतृक गाव में स्मारक आदि को कौन कहे गांव में समाधि के लिए दो गज जमीन के भी लाले पड़े हुए हैं । वास्तव में राजबली यादव जैसे व्यक्तित्व का जन्म युगों में में होता है । जिन मूल्यों को लेकर उन्होंनें संघर्ष किया था, आज उनका क्षरण हो रहा है ।
- (राकेश यादव, लखनऊ)